बागेश्वर का ऐतिहासिक उत्तरायणी कौतिक (मेला) : मेले सुख-समृद्धि का प्रतीक हैं। यह वह आयोजन होते हैं, जिनमें किसी क्षेत्र विशेष की संस्कृति, सभ्यता और धार्मिक-ऐतिहासिक मान्यताओं की झलक देखी जा सकती है। उत्तराखंड के बागेश्वर में प्रतिवर्ष मकर सक्रांति पर लगने वाले उत्तरायणी मेला में देवभूमि के समृद्ध मेलों में शुमार है। इसका आयोजन 14 जनवरी से शुरू होता है।
उत्तरायणी मेले का गौरवशाली इतिहास रहा है। प्राप्त तथ्यों के अनुसार चंद शासनकाल में इस मेले की शुरूआत हुई थी और ब्रिटिश काल में भी इसका उल्लेख आता है। किंतु प्राचीन उत्तरायणी मेले से वर्तमान मेले का स्वरूप काफी भिन्न हो चुका है। अब यह मात्र व्यापारिक ही नहीं एक व्यावसायिक आयोजन भी है। जहां न केवल प्रदेश के विभिन्न जनपदों, बल्कि अन्य राज्यों से भी व्यापारी अपने उत्पाद लेकर पहुंचते हैं।
तीर्थ नगरी बागेश्वर में यह मेला सरयू और गोमती नदी के तट पर आयोजित होता है। यहां मकर सक्रांति के मौके पर यह प्रमुख आकर्षण रहता है। यह आयोजन हफ्ते भर तक चलता है। इस दौरान भारी संख्या में भीड़ मेला आयोजन में उमड़ती है। हालांकि कोराना काल में यह आयोजन भव्य रूप में नहीं हो पाया था, लेकिन नव वर्ष 2023 में इसको धूमधाम से मनाया जायेगा। मकर संक्रांति पर श्रद्धालु जन सरयू और गोमती नदी के संगम पर डुबकी लगाते हैं। इसके अलावा बागनाथ मंदिर में भगवान शिव की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। याचकों को दान-दक्षिणा देकर पुण्य अर्जित करने का भी विधान है।
ज्ञात रहे कि मकर संक्रांति से सूर्य का उत्तरायण प्रारंभ हो जाता है। हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण को देवताओं का दिवस कहा जाता है। यह सकारात्मकता ऊर्जा का भी प्रतीक है। मान्यता है कि इस दौरान दान-स्नान, श्राद्ध-तर्पण व जप-तप आदि क्रियाएं करनी चाहिए।
उत्तरायणी मेले के बारे में अब तक जो ऐतिहासिक तथ्य मिले हैं। उसके अनुसार चंद वंशीय शासनकाल में माघ मेले की शुरूआत हुई थी। मेले को स्थानीय भाषा में ‘घुघतिया त्यौहार’ या ‘घुघतिया ब्यार’ के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश शासनकाल में यह और अधिक समृद्ध हुआ। वर्ष 1905 में ब्रिटिश लेकर इ शर्मन ओखले ने भी इस आयोजन का जिक्र किया है। वह लंदन मिशनरीज के साथ भारत आये थे। उन्होंने अपनी पुस्तक दिव्य हिमालय (Holy Himalayas) में लिखा है कि “यह मेला कुमाउं का सबसे बड़ा एवं लोकप्रिय मेला है”। पुस्तक के अनुसार उस समय यहां 20 से 25 हजार श्रद्धालु मेला आयोजन में पहुंचा करते थे।
ऐतिहासिक दस्तावेजों का यदि अवलोकन करनें तो 14 जनवरी, 1921 को मकर सक्रांति के दिन उत्तरायणी के दिन इसी संगम स्थल पर बद्रीनाथ पांडे के नेतृत्व में हजारों आंदोलनकारियो ने अंग्रेजों की कुली बेगार प्रथा के रजिस्टर को इन्हीं नदियों के संगम में बहा दिया था। इसके बाद ही व्यापक आंदोलन के फलस्वरूप इस प्रथा को समाप्त करने को अंग्रेज विवश हुए थे। आंदोलन का सफल नेतृत्व करने के कारण ही बद्रीनाथ पांडे को “कुर्मांचल केसरी” की उपाधि भी प्रदान की गयी थी। यही नहीं, 1929 में महात्मा गांधी ने भी इस संगम पर ‘स्वराज भवन’ की स्थापना की थी। स्वतंत्रा संग्राम के दौरान राजनैतिक और राष्ट्रीय चेतना फैलाने के लिए इसका उपयोग हुआ।
वर्तमान में यह मेला अपने धार्मिक महत्व के अलावा व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र भी बन जाता है। जहां मेला अवधि में पूजा-पाठ व धार्मिक कार्यक्रम होते हैं, वहीं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी मनमोहक प्रस्तुतियां दी जाती हैं। कुमाउनी झोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का यहां पहुंचने वाले लोग आनंद उठाते हैं। उत्तरायणी मेले में दूर-दराज के व्यापारी भी पहुंचते हैं। तिब्बती व्यापारी यहां ऊनी कपड़े लेकर पहुंचते हैं। भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियां लेकर आते हैं। नेपाल के कई व्यापारी शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व खालें आदि लेकर पहुंचते हैं। यही नहीं, विगत कई सालों से यहां भोटिया व अन्य प्रजाति के कुत्तों की भी बाजार लगा करती है।