संस्मरण : स्व. गोविंदी देवी एक विराट व्यक्तित्व
संस्मरण : स्व. गोविंदी देवी एक विराट व्यक्तित्व

संस्मरण : गोरा-उजला, भरा हुआ चेहरा, छोटी ‘लिलिपुट’ जैसी कद-काठी, होशियारी व उत्सुकता भरे हुए नेत्र……आमा ! मेरी ‘दादी’ श्रीमती गोविंदी देवी से जुड़े मेरे अनुभव-संस्मरण ! (नोट : हम लोग शुरू से अपनी दादी को ‘अम्मा’ कहकर ही संबोधित करते थे।)

कितना दुष्कर है एक ग्रामीण परिवेश की साधरण सी महिला के विराट व्यक्तित्व को संक्षिप्त लेखनी में लिपिबद्ध कर पाना। उस कहानी का क्या करें जिसका ना तो आदि हो ना मध्य और ना ही कोई निश्चित अंत।

कोई ऐसी कथा जो जहां से भी शुरु कर दें वहीं भूमिका बन जाती है, किंतु उसका निश्चित अंत कहीं न बन पाए ? कुछ ऐसा ही भाव आज अपनी दादी मां का चित्रण करते समय अनुभव कर रहा हूं।

आमा के चरित्र की यदि व्याख्या करूं तो दो प्रमुख आधर स्तम्भ बनते हैं – यथार्थता एवं लौकिकता। यहां यथार्थता व लौकिकता से तात्पर्य पौराणिक देव कथाओं से परे एकदम साधारण सांसारिक नारी का चित्रण है। जिसका असाधरण व्यक्तित्व इस सामान्य गृहस्थ नारी को शीर्ष से बहुत उंचा लाकर खड़ा कर देती है।

अम्मा को एक सामान्य नारी कह देना उसके विराट व्यक्तित्व की अवहेलना होगी, ऐसा मेरा मानना है। आमा, ग्रामीण परिवेश की एक ऐसी स्त्री थी, जिसमें चाणक्य का दर्शन, नैपोलियन का संकल्प और जेम्सबांड की उत्सुकता निहित थी। वह भला साधरण नारी कैसे हो सकती है ?

आज पुनः अतीत के स्मृति में गुम दोबारा छोटा सा बालक हो गया हूं।……पापा स्कूल गए हैं और मम्मी स्कूल से आने के बाद घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त हैं। मम्मी-पापा दोनों दिल्ली शिक्षा विभाग में कार्यरत थे। मैं, बिट्टू दा और गुड्डू दा घर पर धमा चौकड़ी मचाए हुए अम्मा-बूबू को परेशान कर रहे हैं। मेरे बड़े भाई आशीष और मनीष। बूबू चारपाई पर पसरे हुए हैं। बीच-बीच में हम तीनों शरारतियों को फटकार भी लगा रहे है, ‘‘अरे रनकरो ! कोई नि छू तुमर गाव-गुसाईं ! आज तुम मैके हैल कर रि छा, कैस दिन देखि मैल। मैं कोर्ट में लैंड रिकार्ड पेशकार रईं, सालों तक मुकदम झेली कतुक संघर्ष करी। आजै यो अवस्था आ गै।’’

अर्थात हिंदी में — ”अरे दुष्टों तुमको क्या कोई रोकने-ठोकने वाला नहीं है। आज तुम मुझे कम समझ रहे हो। मैं कोर्ट में लैंड रिकार्ड पेशकार रहा था, कितने मुकदमे झेले, कितना संघर्ष किया और आज यह अवस्था आ गई।” सम्भवतः हम चुप भी हो जाते यदि हमारे सामने हमारी विदूषक अम्मा नहीं होती।

शुरु से हंसमुख और मस्त स्वभाव मैंने अपनी अम्मा का देखा है, जो कि बुबूजी के चिंतातुर स्वभाव से कतई मेल नहीं खाता था। हम भाईयों का मनोरंजन करने के लिए हमारी अम्मा कभी बुबू, कभी पापा और कभी मम्मी की नकल निकालते हुए नाना प्रकार के स्वांग रचती थीं। हम बच्चों को अपना जैसा एक नन्हा-मुन्हा बालक अपनी वृद्धा दादी में मिलता दृष्टिगोचर होता था।

सच! अम्मा हमारे साथ विनोद के क्षणों में बच्चा ही हो जाया करती थीं। सोते समय हम भाईयों के सिर पर अम्मा के उस ‘स्नेहिल स्पर्श’ की अनुभूति आज भी ज्यों की त्यों है।….‘आनिन्न…आनिन्न….’ आमा हमें सुलाने का प्रयास करती और खुद निद्रामग्न हो जातीं तो हमारे गुड्डू दा आशीष भाई साहब कह उठते, ‘अम्मा आनिन्न..अम्मा आनिन्न…’।

अम्मा से पुनः थपथपाने की गुजारिश करते थे। चूंकि मैं सबसे छोटा था अतः अम्मा का विशेष स्नेह मेरे लिए होना भी स्वाभाविक ही था। छोटे से बालक को मुझे घुटनों पर बैठा कर उपर-चीचे झूला झुलाने की जिम्मेदारी अम्मा की ही थी।….‘घुघूती-बासूती, दूध् पीले, दै खाले, मोट हैे जाले, ठुल-ठुल बढ़ने जाए…’

आज भी अम्मा को याद करते हुए लगता है जैसे मैं एक नन्हा बालक सदृश्य, उनके पांव की पालकी में बैठा झूल रहा हूं।

सामान्यतः एक ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी नारी से ‘पाक-कला’ में सिद्धहस्त होने की तो आशा ही नहीं की जा सकती थी, किंतु जो स्वाद अम्मा के हाथों से बने पराठे को ‘पिसि लूण’; पीसे हुए नमक के साथ खाने में आता था, उस जायके के लिए मैं आज तक तरस कर रह गया हूं। किसी फाइव स्टार होटल के ऐरिस्ट्रोक्रेट खाने में भी वह स्वाद मिल पाना दुर्लभ है।

इसके अलावा ‘साई’ नामक विशेष पहाड़ी व्यंजन उनके जैसा आज तक कोई बना कर खिला नहीं पाया। सच तो यह है कि ‘साई’ सिर्फ अम्मा ही बनाती थीं। उनके बाद घर में किसी ने इस व्यंजन को बनाने की जहमियत ही नहीं उठाई। हालांकि मम्मी के द्वारा ‘कस्टर्ड’, ‘तहरी’, ‘अंडाकरी’ व ‘सूजी का हलवा’ इत्यादि काफी खाई है।

होम साइंस से एम.ए. करी भाभी के द्वारा बनाए दर्जनों व्यंजन भी चख लिए हैं, किंतु अम्मा के वे ‘पराठे’ और ‘पिसि लूण’ पुनः नसीब नहीं होंगे।
महज संयोग की बात है कि बुबूजी के साथ अम्मा के अकसर चलने वाले ‘वाक् युद्धों’ का प्रमुख कारण अम्मा की यही ‘पाककला’ थी। कारण पराठे, साई, पकौड़ी इत्यादि गरिष्ठ पदार्थों से बूबूजी को सदा परहेज ही रहा तथा दाल-चावल, सब्जी-रायता जैसे खाद्य पदार्थ पकाते समय मिर्च-मसाले और नमक के अनुपात का उचित संयोजन करने में शायद अम्मा ताउम्र असमर्थ ही रहीं। चावल अक्सर गीले रह जाते थे, जो बुबू की नाराजगी का प्रमुख कारण रहता था।

जहां बूबूजी द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों के विषय ‘रामायण’, ‘महाभारत’ जैसे ग्रंथों के गम्भीर पात्रा हुआ करते थे वहीं अम्मा की कहानयिां हल्के-फुल्के स्तर की हुआ करती थीं। अम्मा एक खास अंदाज में ‘लाल सुअरी’, ‘सियार-सियारिन’ आदि बेसिर पैर की कहानियां भी इतनी रोचकता के साथ सुनाती थीं कि हम अपने सभी कामकाज छोड़कर उन्हीं कहानियों में मग्न हो जाया करते थे। अम्मा की इन किवदंतियों के पात्रा भले ही इस संसार में हों या न हों, लेकिन तद्क्षण हमें अम्मा ही अपने द्वारा सुनाई जाने वाली किसी कहानी की पात्र सी लगती थीं।

कपोल-कल्पित कहानी से उत्पन्न यथार्थ के धरातल से जुड़ी एक संघर्षशील-उत्साही वृद्धा अपने बीच वाले नाती मनीष (बिट्टू दा) की शादी में ठुमक-ठुमक नाच कर युवाओं को भी मात दे गई। यह उनकी अपराजित मनोवृत्ति का सबसे बड़ा प्रमाण था। बुढ़ापे की निष्ठुरता और अपने पति का वियोग भी इस तेजस्वी नारी के उत्साह को तनिक भी कम न कर सका। अंतिम क्षणों तक उनकी वाणी में वही युवावस्था की तीव्रता विद्यमान रही। हालांकि अम्मा ने सांसारिक क,ख,ग नहीं पढ़ा तथा उनके लिए अक्षर ज्ञान काली भैंस बराबर था, लेकिन सांसारिक पुस्तक का उन्होंने बहुत तत्परता से अध्ययन किया था। एक आदर्श विद्यार्थी की तरह हर नई बातों को जानने की उत्सुकता, कुछ नया सीखने की ललक, हर बात को जानने की इच्छा भले ही वह बात उनके किसी मतलब की न हों तथा एक ज्ञानी प्रवक्ता की तरह हर सुनी हुई बातों की व्याख्या करने का सामथर्य उनमें विद्यमान था।

इसके अलावा हर परिचित-अपरिचित आगंतुक का पूर्ण-परिचय उन्हें जानने की दिली इच्छा रहती थी। हमेशा प्रश्नों का अंबार उनके पास होता था। ……रोचक बात यह थी कि संबंध्ति व्यक्ति द्वारा किसी पूर्व प्रश्न का उत्तर मिलते ही वह फौरन दूसरे-तीसरे प्रश्न की झड़ी लगा दिया करती थी। सुनी हुई बातों की फिर व्याख्या कर देने का उनका अंदाज निराला था। निश्चय ही एक अच्छे अधिवक्ता के गुण भी उनमें विद्यमान थे। हाजिर जवाबी में उनका कोई सानी नहीं था।

अम्मा के व्यक्तित्व का एक कमजोर पहलू उनका अत्यंत कंजूसी भरा स्वभाव था। अल्मोड़ा निवासियों के लिए अक्सर प्रयुक्त होने वाली उक्ति, ‘तू मेर घर आले के लाले, मैं त्यर घर उूल के ख्वाले’ उन पर सटीक बैठती थी। उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष मेरे उदार चरित्र बुबू से कहीं मेल नहीं खाता था। घर में आने वाले मेहमानों के हाथों में उनकी नज़र रहती थी कि वह क्या लेकर आ रहा है। हाथ में लेकर आए उपहारों से आदमी की कीमत का वह आंकलन विदा के समय पिठिया लगाते हुए करती थीं।

पता नहीं कितना सच है पर बूबू बताते थे कि घर में आए मेहमान को वह मुट्ठी बंद करके भेंट रूपया देती थी। यह अलग बात है कि उनकी मुट्ठी खुलती ही नहीं थी। भेंट देते वक्त कहतीं, ‘थामने कन ?’ पीछे से बुबू कहते, ‘अरे, मुट्ठी खोललि तबै थामौल’ अरे, तू जब अपनी मुट्ठी खोलेगी तभी तो तेरे हाथ में रखा रूपया वह थामेगा।। ……ऐसा नहीं कि सांसारिक माया का संग्रह अम्मा ने कभी अपने लिए किया हो। मैंने जीवन पर्यन्त उन्हें संग्रहित धन से कभी अपने लिए कुछ खरीदते नहीं देखा।

अपने उपभोग व ऐश्वर्य के लिए उन्होंने कोई खास संसाधन भी नहीं जुटाए। उल्टा न कभी अच्छा खाया और न ही कभी अच्छा पहना। ऐसा वह क्यों करती थीं इसका कोई निश्चित उत्तर भी समझ नहीं आता। शायद बूबू से विवाह के बाद जमीन-जायदाद को लेकर झेले मुकदमों और इससे उत्पन्न आर्थिक अभावों ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया था और बचत का स्वभाव उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया था।

वर्ष 2003 के आरम्भ से ही इस अदम्य जिजीविषा की धनी महिला को लगभग 96 वर्ष में शारीरिक अक्षमता ने जकड़ लिया। जीवन के बड़े-बड़े झंझावतों को अकेले अपने दम पर झेलने वाली यह तेजस्वनी नारी प्रकृति से हार गई। लगातार कुछ माह तक हाथ-पांवों की शिथिलता और बुढ़ापे के कारण बिस्तर से ऐसी लगीं कि दोबारा उठ न सकीं। फिर भी अंतिम दिनों तक उनकी आवाज़ में वही दम-खम बना रहा। जिंदगी की बड़ी-बड़ी बाधओं की परवाह न करने वाली मेरी अम्मा मौत से बहुत डरती थीं। अक्सर कहती थी कि नाती, पता नहीं मरने के बाद आदमी की क्या दशा होती है, लेकिन उनके जीवन की संध्या निरंतर उनके करीब आते ही चली गई।

अंतिम दिनों में उनकी तीक्ष्ण बुद्धि व गजब की याददाश्त भी कम हो गई। ऐसी स्थिति में मेरी मां ने उनकी अथक सेवा करके एक आदर्श बहू का फर्ज निभाया। सम्भवतः यह अम्मा के पूर्व जन्म के सत्कर्मों का फल था कि उन्हें मेरी मां जैसी बहू मिली। पिताजी भी रात भर सो नहीं पाते थे। जब भी अम्मा किसी अन्य लोक में होते हुए रात को आवाज़ लगातीं तो पापा बरबस उनके कमरे में पहुंच जाते।

वहां अम्मा पापा से पता नहीं क्या-क्या कहतीं, मुझे नहीं पता, लेकिन इतना जरूर था कि उनको अपनी अंतिम विदाई का अहसास हो गया था और अंतिम दिनों में उनका अपने एकलौते पुत्र मेरे पिता पर विशेष स्नेह उमड़ पड़ा था। बेहोशी की हालत में कहने लगीं थीं, ‘बलवंतक बौज्यू, बलवंत स्कूल बटि आन वाल छू।’ बलवंत के पिताजी, बलवंत स्कूल से आने वाला होगा। संभवतः अम्मा वर्षों पुरानी स्मृतियों में ही खो जाया करती होंगी।

26 अप्रैल 2003 का वह मनहूस दिन मुझे आज भी याद है। मैं अपने आफिस गया हुआ था। अचानक पड़ोस की एक महिला का फोन आया, ‘दीपक ! अम्मा की तबियत बहुत खराब है, तुम फौरन घर आ जाओ।’ किसी अनहोनी की आशंका से मैं फौरन घर आ पहुंचा। वही हुआ जिसका अंदेशा था। अम्मा इस दुनिया से विदा ले चुकी थी।

……..अम्मा चिर निद्रा में सो गईं। बीमारी की स्थिति में तीव्र शारीरिक पीड़ा से तिलमिलाने वाली अम्मा के मुखमंडल में तब पीड़ा का एक चिन्ह मात्र भी नहीं था। अम्मा के साथ ही मानो एक पीढ़ी का अंत हो गया।….बस ! अब स्मृतियां ही शेष हैं।

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