📌 80 के दशक से वर्तमान दौर, क्या खोया, क्या पाया !
मेरा ब्लॉग : 80 से 90 के दशक के बीच की बात है। हम तीन भाई माता-पिता के साथ देश की राजधानी दिल्ली रहा करते थे। माता-पिता दोनों सरकारी सेवा (शिक्षा विभाग) में थे। यह वह दौर था जब आज की तरह व्यर्थ की भाग-दौड़ और आपधापी नहीं थी। दिल्ली जैसे महानगर में भी लोगों के बीच एक आत्मीय लगाव हुआ करता था। उत्तराखंड जैसे राज्य में तो स्थिति और बेहतर थी। आज की तरह आधुनिक सुविधाएं भले ही नहीं थी, लेकिन उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय जनपद किसी स्वर्ग से कम नहीं थे।
चलिए शुरूआत दिल्ली से ही करता हूं। 80 का दशक वह दौर था जब पंजाब में उग्रवाद खूब फल-फूल रहा था। भिंडरवाले का उदय हो चुका था। देशभर में चर्चा का केंद्र ही आतंकवाद था। हिंदू धर्म के लोगों को लगातार निशाना बनाया जा रहा था। काफी कत्लेआम चला।
तब आज की तरह इंटरनेट व सोशल मीडिया नहीं था। सूचनाओं के लिए दूरदर्शन अथवा समाचार पत्र हुआ करते थे। रोजाना समाचार पत्रों को पढ़ने के बाद देश के हालातों पर चर्चा हुआ करती थी। बाद में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने पंजाब के गोल्डन टेंपल में आपरेशन ब्लू स्टार चलाया। चुन-चुन का आतंकी मारे गए। देश को बड़ी राहत मिली। लेकिन सिख समुदाय इंदिरा को अपना शत्रू समझने लगा। फिर उनकी हत्या हो गई। जिसके बाद तब देश हिंदू-सिख दंगों की आग में जल उठा था।
यहां मेरा उद्देश्य किसी राजनैतिक परिचर्चा का नहीं है। सिर्फ यह बताने का प्रयास कि 80 के दशक में यदि आज की इंटरनेट, सोशल मीडिया, तमाम न्यूज पोर्टल व अखबारों व टीवी चैनलों की भीड़ होती तो क्या हुआ होता। निश्चित रूप से गलत सूचनाएं प्रसारित होती। दंगों का स्वरूप और व्यापक हो गया होता। हालांकि बहुत बुरा दौर था 1980 का वह दशक, लेकिन आज से तब भी बेहतर ही कहा जायेगा।
1996 के बाद पारिवारिक कारणों से दिल्ली छोड़ उत्तराखंड के अल्मोड़ा का रूख किया। यहां की प्राकृतिक आबोहवा और खूबसूरती ने अभिभूत कर दिया था। कहां दिल्ली जैसा महानगर और कहां शांत देवों की नगरी अल्मोड़ा।
हालांकि तब तक यहां घर-घर विद्युत आपूर्ति हो चुकी थी, लेकिन पेयजल किल्लत का दौर था। पानी की किल्लत के चलते ही आज की तरह बेहताशा कंकरीट के जंगल तब नहीं बिछ रहे थे। आम तौर पर लोग धारे-नौलों में जाया करते थे। यह धारे-नौले घर की महिला-पुरूषों के एक मिटिंग स्पॉट भी थे। जहां पानी की लाइन में खड़े होकर एक-दूसरे के दु:ख सुख जानने का मौका मिलता था।
अल्मोड़ा में तब अधिकांश लोग सरकारी नौकरीपेशा थे। करीब एक समान आय थी। आज की तरह प्राइवेट जॉब का दौर और आय में जमीन आसमान का अंतर नहीं हुआ करता था। अधिकांश लोगों को सुबह 10 बजे कार्यालय जाना होता था।
अतएव घर-घर में सुबह करीब 8.30 से 09 बजे दाल-भात की खुशबू आती थी। फिर लोग दफ्तरों को चले जाया करते थे। बच्चे स्कूलों को साथ-साथ टोली बनाकर चल देते थे। चूंकि आज की तरह प्राइवेट स्कूल नहीं थे, अतएव सरकारी स्कूलों में भीड़ थी। मुख्य रूप से जीआईसी, जीजीआईसी, एआईसी, रैमजे में बच्चों की टोलियां जाती दिखाई देती थीं।
जब बच्चे स्कूल और पुरूष दफ्तर होते थे। तो मानो मोहल्ले-मोहल्ले महिलाओं का जैसे कौतिक (मेला) शुरू हो जाया करता था। महिलाओं का समूह एक दूसरे के घरों में जाकर घंटों बतियाता था। माना पैसा बहुत नहीं था, सुविधाएं नहीं थी, लेकिन सकून बहुत हुआ करता था। किस के घर में क्या पक रहा है यह तो पूरे मोहल्ले को पता हुआ करता था। रसोई पराई नहीं होती थी। घर में पके पकवानों का रोजाना आदान-प्रदान हुआ करता था।
तब चाहे दिल्ली जैसा महानगर हो या उत्तराखंड का अल्मोड़ा। हर घर टेलीफोन और कलर टीवी भी नहीं हुआ करते थे। अमूमन मोहल्ले में कुछ लोगों के घर टीवी, फोन आदि होते थे। उनके नंबर आस-पड़ोस में बंट जाते थे। अकसर पड़ोस के मकान में लगे लैंडलाइन में रिश्तेदारों के फोन आया करते थे। यह दौर था साल 1988 का। तब टीवी में ‘रामायण’, ‘महाभारत’ जैसे सीरियल हिट थे। इसके अलावा कुछ चर्चित सीरियलों में ‘हम लोग’, ‘विक्रम बेताल’, ‘शक्तिमान’, ‘जैंट रॉर्बट’ आदि हुआ करते थे। जिन्हें देखने घरों में मजमा लगता था। फिल्मी गीतों पर आधारित ‘चित्रहार’ मुख्य आकर्षण का केंद्र हुआ करता था।
प्रगति की बही बयार, बदल गया सब कुछ
हालांकि इंटरनेट भारत में 15 अगस्त, 1995 को विदेश संचार निगम लिमिटेड द्वारा शुरू किया गया था। बावजूद इसके इसे घर-घर तक पहुंचने में सालों लग गए। कहा जा सकता है कि साल 2000 के बाद से ही इंटरनेट, एंड्राइड मोबाइल आदि का दौर शुरू हुआ। एक समय था जब लोग यह सोच भी नहीं सकते थे कि घर-घर टीवी और इंटरनेट आ जायेगा। किंतु ऐसा हुआ। प्रगति के पथ में हम आगे बढ़े चले गए।
आज लगभग हर व्यक्ति के हाथ में महंगे मोबाइल हैं, हाई स्पीड इंटरनेट है, बढ़िया टीवी हैं। गांव-गांव में सड़कें हैं, अस्पताल हैं, स्कूल हैं। आवागमन के ढेरों साधन हैं। सरकारी विभागों में तो अच्छी तनख्वाह है। प्राईवेट सेक्टर में भी लोग अच्छा कमा रहे हैं। इसके बावजूद यदि कुछ नहीं है तो वह है ‘सकून के दो पल’, ‘अपनापन’, ‘समाज’ आदि। आज दिल्ली जैसे महानगर को तो भूल जाइये, अल्मोड़ा तक में मुझे हर जगह एक संकुचित किस्म का अपने तक सीमित समाज ही दिखाई देता है। पड़ोसी की खोज-खबर तो दूर, लोगों ने एक-दूसरे के साथ बातचीत तक बहुत सीमित कर दी है।
पड़ोस की रसोई में क्या पक रहा है तो दूर, पड़ोसी किस विपत्ती में है तक लोगों को नहीं पता। हाल में शहर के ही एक मोहल्ले में एक रिटायर्ड फौजी अपने कमरे में मृत मिला था। उस व्यक्ति का परिवार भी उसके साथ नहीं था। उसकी मौत का पता तब चला, जब घर से कई रोज बाद बदबू आने लगी।
……आज सब कुछ होते हुए भी जैसे कुछ नहीं है। पैसा है पर सकून नहीं है, आलीशान मकान हैं, लेकिन परिवार नहीं है। तमाम सुख-सुविधाएं हैं, लेकिन सुख भोगने का समय नहीं है। फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप जैसा सोशल मीडिया (social media) तो है, लेकिन यह नाम भर का सोशल है, जबकि इसका काम हमें अन-सोशल (unsocial) बनाने का हो चुका है। उम्मीद है आने वाले पीढ़ी और प्रगति करेगी। शायद वह वक्त आज से भी जुदा होगा। – दीपक मनराल